Bank Chor Movie Review: मनोरंजन की ठीक-ठाक खुराक देते है बैंक चोर

कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जिनमें आप कुछ तलाशने की कोशिश न करें तो वो आपको मनोरंजन की ठीक-ठाक खुराक दे देती हैं। लेकिन जैसे ही आप उसमें तार्किकता, संदेश आदि ढूंढने की कोशिश करने लगते हैं, आपके हाथ से मनोरंजन भी फिसलने लगता है। यशराज की नई फिल्म ‘बैंक चोर’ भी एक ऐसी ही फिल्म है। इस फिल्म के बारे में एक बात और कही जा सकती है कि यह यशराज की ही ‘धूम’ सीरिज से बहुत प्रेरित है। हालांकि ‘धूम’ सीरिज का ट्रीटमेंट और फलक ‘बैंक चोर’ से बहुत बड़ा है। वैसे इतना तो कह ही सकते हैं कि यशराज ने अपना ही ईंट और रोड़ा उठा कर ‘बैंक चोर’ का कुनबा जोड़ा है। चंपक (रितेश देशमुख) एक बैंक चोर है, जो अपने दो साथियों गेंदा (विक्रम थापा) और गुलाब (भुवन अरोड़ा) के साथ मिल कर बैंक चोरी करने जाता है। वहां तीनों जिस तरह की हरकते करते हैं, उससे बैंक के अंदर बंधकों को लगता है कि तीनों पहली बार बैंक चोरी करने आए हैं। इस बैंक चोरी से निबटने का जिम्मा सीबीआई ऑफिसर अमजद खान (विवेक ओबेरॉय) को दिया जाता है। उसे लगता है कि यह कोई मामूली बैंक चोरी नहीं है, बल्कि इसमें कोई बड़ा खेल है। मौका-ए-वारदात पर मीडिया का भी जमावड़ा है, जो पल-पल की खबर प्रसारित कर रहा है। इसी में एक खूबसूरत-सी रिपोर्टर है गायत्री गांगुली (रिया चक्रवर्ती), जिसे अमजद खान अंदर बंधकों की हालत का पता लगाने के लिए भेजता है। फिल्म में एक दिलचस्प मोड़ तब आता है, जब पता चलता है कि एक और चोर जुगनू (साहिल वैद) पहले से ही बैंकफिल्म की कहानी बड़ी आम-सी है, लेकिन उसका ट्रीटमेंट मजेदार है। पटकथा में कई झोल हैं, लेकिन फिल्म बोर नहीं करती। कॉमेडी बहुत मजेदार है। चंपक की उल्टी-सीधी हरकतें हंसाती हैं। जब गेंदा और गुलाब अपने-अपने शहरों फरीदाबाद और गाजियाबाद का पक्ष लेकर एक-दूसरे से लड़ते हैं तो मजा आता है। बैंक डकैती पर बनी फिल्में सामान्य तौर पर क्राइम-थ्रिलर होती हैं, लेकिन ‘बैंक चोर’ का मिजाज कॉमेडी वाला है। हालांकि क्लाईमैक्स में थोड़ा-सा थ्रिल भी है। फिल्म के सभी प्रमुख कलाकारों का अभिनय ठीक है। रितेश देशमुख तो लगता है कि अब कॉमेडी के ही होकर रह गए हैं। निर्देशक भी अमूमन उन्हें ऐसे ही किरदारों में कास्ट करना पसंद करते हैं। हालांकि उन्होंने ‘एक विलन’ से अपनी छवि तोड़ने की कोशिश की थी, लेकिन लगता है कि उन्हें इसमें कुछ खास सफलता नहीं मिली है। गेंदा और गुलाब के रूप में विक्रम थापा और भुवन अरोड़ा की जोड़ी अच्छी लगी है। दोनों की भाव-भंगिमाएं और संवाद अदायगी मजेदार है। विवेक भी अपने किरदार में जमे हैं। में घुसा हुआ है।फिल्म की कहानी बड़ी आम-सी है, लेकिन उसका ट्रीटमेंट मजेदार है। पटकथा में कई झोल हैं, लेकिन फिल्म बोर नहीं करती। कॉमेडी बहुत मजेदार है। चंपक की उल्टी-सीधी हरकतें हंसाती हैं। जब गेंदा और गुलाब अपने-अपने शहरों फरीदाबाद और गाजियाबाद का पक्ष लेकर एक-दूसरे से लड़ते हैं तो मजा आता है। बैंक डकैती पर बनी फिल्में सामान्य तौर पर क्राइम-थ्रिलर होती हैं, लेकिन ‘बैंक चोर’ का मिजाज कॉमेडी वाला है। हालांकि क्लाईमैक्स में थोड़ा-सा थ्रिल भी है। फिल्म के सभी प्रमुख कलाकारों का अभिनय ठीक है। रितेश देशमुख तो लगता है कि अब कॉमेडी के ही होकर रह गए हैं। निर्देशक भी अमूमन उन्हें ऐसे ही किरदारों में कास्ट करना पसंद करते हैं। हालांकि उन्होंने ‘एक विलन’ से अपनी छवि तोड़ने की कोशिश की थी, लेकिन लगता है कि उन्हें इसमें कुछ खास सफलता नहीं मिली है। गेंदा और गुलाब के रूप में विक्रम थापा और भुवन अरोड़ा की जोड़ी अच्छी लगी है। दोनों की भाव-भंगिमाएं और संवाद अदायगी मजेदार है। विवेक भी अपने किरदार में जमे हैं। प्रेस रिपोर्टर के रूप में रिया चक्रवर्ती ठीकठाक हैं। जुगनू के रूप में साहिल वैद का अभिनय ठीक है। वैसे उनके किरदार में जो क्रूरता और काइयांपन दिखना चाहिए था, वह पूरी तरह से नहीं आ पाया है। हो सकता है फिल्म के मूड को देखते हुए लेखक और निर्देशक ने किरदार को इसी तरीके से गढ़ा हो। बम्पी का निर्देशन ठीक है, वह फिल्म को उबाऊ नहीं होने देते। फिल्म का टाइटल सॉन्ग ‘बैंक चोर’ कुछ इस तरह से बनाया और गाया गया है कि उससे कुछ और ही प्रतिध्वनित होता है। इसके अलावा फिल्म में कोई और गाना नहीं है। यह फिल्म की सेहत के लिए ठीक ही रहा। करीब 130 मिनट की इस फिल्म के कुछ मिनट कम किए जा सकते थे, खासकर क्लाईमैक्स में। उसे थोड़ा और कसा हुआ बनाया जा सकता था, तब फिल्म का आस्वाद और बढ़ जाता। कुल मिला कर यह एक मनोरंजक फिल्म है, जिसमें टाइटल सॉन्ग को छोड़ कर द्विअर्थी संवाद और भोंडापन नहीं। यह एक साफ-सुथरी कॉमेडी है, जो एक बार देखी जा सकती है।

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