साकेत चौधरी निर्देशित ‘हिंदी मीडियम’ एक अनिवार्य फिल्म है। मध्यवर्ग की विसंगतियों को छूती इस फिल्म के विषय से सभी वाकिफ हैं, लेकिन कोई इस पर बातें नहीं करता। आजादी के बाद भी देश की भाषा समस्या समाप्त नहीं हुई है। दो की लड़ाई में तीसरे का फायदा का साक्षात उदाहरण है भारतीय समाज में अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व। अंग्रेजी की हिमायत करने वालों के पास अनेक बेबुनियादी तर्क हैं। हिंदी के खिलाफ अन्य भाषाओं की असुरक्षा अंग्रेजी का मारक अस्त्र है। अंग्रेजी चलती रहे। हिंदी लागू न हो। अब तो उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों में भी अंग्रेजी फन काढ़े खड़ी है। दुकानों के साइन बोर्ड और गलियों के नाम अंग्रेजी में होने लगे हैं।
इंग्लिश पब्लिक स्कूलों के अहाते बड़ होते जा रहे हैं और हिंदी मीडियम सरकारी स्कूल सिमटते जा रहे हैं। हर कोई अपने बच्चे को इंग्लिश मीडियम में डालना चाहता है। सरकार और समाज के पास स्पष्ट और कारगर शिक्षा व भाषा नीति नहीं है। खुद हिंदी फिल्मों का सारा कार्य व्यापार मुख्य रूप से अंग्रेजी में होने लगा है। हिंदी तो मजबूरी है देश के दर्शकों के बीच पहुचने के लिए...वश चले तो अंग्रेजीदां फिल्मकार फिल्मों के संवाद अंग्रेजी में ही बोलें (अभी वे अंग्रेजी में लिखे जाते हैं और बोलने के लिए उन्हें रोमनागरी में एक्टर को दिया जाता है)।
बहरहाल, चांदनी चौक का राज बत्रा स्मार्ट दुकानदार है। उसने अपने खानदानी बिजनेस को आगे बढ़ाया है और अपनी पसंद की हाई-फाई लड़की से शादी भी कर ली है। दोनों मोहब्बत में चूर हैं। उन्हें बेटी होती है। बेटी जब स्कूल जाने की की उम्र में आती है तो मां चाहती है कि उसकी बेटी दिल्ली के टॉप स्कूल में अंग्रेजी मीडियम में पढ़ाई करे। ऐसे स्कूलों में दाखिले के कुछ घोषित और अघोषित नियम होते हैं। राज बत्रा अघोषित नियमों के दायरे में आ जाता है। राज अंग्रेजी नहीं जानता। उसे इस बात की शर्म भी नहीं है। लेकिन मीता को लगता है कि अंग्रेजी नहीं जानने से उनकी बेटी डिप्रेशन में आकर ड्रग्स लेने लगेगी। हर बार राज के सामने वह यही बात दोहराती है। दोनों जी-जान से कोशिश करते हैं कि उनकी बेटी किसी तरह टॉप अंग्रेजी स्कूल में दाखिला पा जाए।
हर काेशिश में असफल होने के बाद उन्हें एक ही युक्ति सूझती है कि वे आरटीई (राइट टू एडुकेशन) के तहत गरीब कोटे से बच्ची का एडमिशन करवा दें। फिर गरीबी का तमाशा शुरू होता है और फिल्म के विषय की सांद्रता व गंभीरता ढीली और हल्की शुरू होन लगती है। उच्च मध्य वर्ग के लेखक, पत्रकार और फिल्मकार गरीबी की बातें और चित्रण करते समय फिल्मी समाज रचने लगते हैं। इस फिल्म में भी यही होता है। ‘हिंदी मीडियम’ जैसी बेहतरीन फिल्म का यह कमजोर अंश है। गरीबी के अंश के दृश्यों में राज बत्रा, मीता और श्याम प्रकाश मिथ्या रचते हैं। चूंकि तीनों ही शानदार एक्टर हैं, इसलिए वे पटकथा की सीमाओं के शिकार नहीं होते। वे निजी प्रयास और दखल से घिसे-पिटे और स्टॉक दृश्यों को अर्थपूर्ण और प्रभावशाली बना देते हैं।
फिल्म के इस हिस्से में कलाकारों का इम्प्रूवाइजेशन गौरतलब है। इरफान और दीपक डोबरियाल की जुगलबंदी फिल्म को ऊंचे स्तर पर ले जाती है। किरदार श्याम प्रकाश के साथ कलाकार दीपक डोबरियाल भी बड़ा हो जाता है। किरदार और कलाकार दोनों ही दर्शकों की हमदर्दी हासिल कर लेते हैं। सबा कमर भी उनसे पीछे नहीं रहतीं। भारतीय परिवेश के बहुस्तरीय किरदार को पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर ने बहुत अच्छी तरह निभाया है। यह फिल्म इरफान की अदाकारी, कॉमिक टाइमिंग और संवाद अदायगी के लिए बार-बार देखी जाएगी। सामान्य सी पंक्तियों में वे अपने अंदाज से हास्य और व्यंग्य पैदा करते हैं। वे हंसाने के साथ भेदते हैं।
दर्शकों को भी मजाक का पात्र बना देते हैं। पर्दे पर दिख रही बेबसी और लाचारगी हर उस पिता की बानगी बन जाती है जो अंग्रेजी मीडियम का दबाव झेल रहा है। ‘हिंदी मीडियम हमारे समय की जरूरी फिल्म है...राज बत्रा कहता ही है...इंग्लिश इज इंडिया एंड इंडिया इज इंग्लिश। ह्वेन फ्रांस बंदा, जर्मन बंदा स्पीक रौंग इंग्लिश... वी नो प्राब्लम। एक इंडियन बंदा से रौंग इंग्लिश बंदा ही बेकार हो जाता है जी। हालांकि यह फिल्म अंग्रेजी प्रभाव और दबाव के भेद नहीं खोल पाती, लेकिन उस मुद्दे को उठा कर सामाजिक विसंगति जाहिर तो कर देती है। आप संवेदनशील हैं तो सोचें। अपने जीवन और बच्चों के लिए फैसले बदलें।